“What no wife of a writer can ever understand is that a writer is working when he's staring out the window” -Burton Rascoe
मंगलवार, 5 जनवरी 2010
बदलती दुनिया में खबरें
सारी दुनिया की समाचार एजेंसियों के लिए यह एक कठिन दौर है। सूचना प्रौद्योगिकी के तेजी से बढ़ते दखल और सारी दुनिया में इंटरनेट के असीमित विस्तार ने उनके सामने नई चुनौतियां खड़ी कर दी हैं। सारी दुनिया में यह माना जा रहा है कि समाचार एजेंसियों का भविष्य तभी सुरक्षित है जब वे बदलती टेक्नोलॉजी को आत्मसात करने और बाजार की नई जरूरतों को समझने में तत्परता दिखाएंगी। अमेरिका के तमाम समाचार पत्र समूह- जो मंदी के चलते अपने स्टाफ में कटौती करने और दूसरे देशों में स्थित ब्यूरो बंद करने में लगे हैं- मानते हैं कि समाचार एजेंसियों को अब खबर के प्राथमिक और विश्वसनीय स्रोत भर होने की अपनी भूमिका में बदलाव लाना होगा।
एजेंसियों के प्रति सकारात्मक रुख रखने वाले मीडिया विशेषज्ञ मार्सेल फेनेज का मानना है कि बीते 12 सालों में इंटरनेट और मोबाइल के विस्तार ने एजेंसियों के लिए असीमित संभावनाओं को जन्म दिया और उसके लिए एक बिल्कुल नया बाजार सामने आया है। मगर उनका कहना है कि अगर समाचार एजेंसियां इसका लाभ उठाना चाहती हैं तो उन्हें मल्टीमीडिया की अवधारणा को समझते हुए नई तकनीकी के साथ चलना होगा और खबरों में वीडियो और तस्वीरों की अहमियत को स्वीकार करना होगा।
आम तौर पर न्यूज एजेंसी को विभिन्न समाचार उद्योगों को खबरें और कंटेट मुहैया कराने वाली संस्था के रूप में परिभाषित किया जाता है। इतिहास में सबसे पुरानी समाचार एजेंसी के रूप में एएफपी का नाम सामने आता है, जिसने 1835 में अपनी सेवाएं देना आरंभ किया था। इसे पेरिस के एक अनुवादक और विज्ञापन एजेंट चार्ल्स लुइस ने स्थापित किया। बाद में उनके दो कर्मचारी पॉल जुलिएस रॉयटर और बर्नार्ड वूल्फ ने लंदन और बर्लिन में प्रतिद्वंद्वी समाचार एजेंसियों की स्थापना की। शानदार इतिहास और दो विश्व युद्धों की गवाह रह चुकी इन समाचार एजेंसियों का चेहरा बीते 20 वर्षों में तेजी से बदला है। सिर्फ भारत में ही नहीं ब्रिटेन तक में राष्ट्रीय अखबारों की अवधारणा खत्म हो रही है और वहां भी 'प्रोविंसियल न्यूज' का बोलबाला है। दुनिया भर के अखबारों में खर्चे कम करने और स्टाफ घटाने की कवायद चल रही है, ऐसी स्थिति में समाचार एजेंसियों के प्रति उनके रवैये में बदलाव भी आया है। वहीं एजेंसियों या वायर्ड सर्विसेज के लिए हर रोज बदलती जरूरतों को समझना काफी कठिन होता जा रहा है।
इंटरनेट के इस दौर में एजेंसियों के सामने सिटिजन जर्निलिज्म भी एक नई चुनौती बनकर सामने आई है। सिटिजन जर्लनलिज्म को मीडिया में आम जनों की भागीदारी या लोकतांत्रिक पत्रकारिता के रूप में देखा जा सकता है। सूचनाओं को दूसरों तक पहुंचाने के इस नए माध्यम ने मीडिया की सक्रियता, रिपोर्टिंग, विश्लेषण और सूचना के प्रसार में अहम भूमिका निभाई है।
दरअसल सिटिजन जर्नलिज्म का विकास इंटरनेट के उस दौर में हुआ, जो नेट की भाषा में 'यूजर जेनरेटेड कंटेट' पर आधारित था। इसे जन्म दिया था तेजी ने उभरती इंटरनेट और नेटवर्किंग टेक्नोलॉजी ने, जैसे कि ब्लाग, चैट रूम, मैसेज बोर्ड, विभिन्न इंटरनेट समूह और मोबाइल कंप्यूटिंग। बदलती तकनीकी ने यह सुविधा लेकर आई कि खबर पढ़ने वाला अपनी राय दे सकता है, किसी मुद्दे पर अपना मत प्रदान कर सकता है और खुद वहां जाकर लिख भी सकता है। यह ब्लागर्स और यूजर जेनरेटेड कंटेट की ही देन थी कि सन् 2006 में टाइम मैगजीन ने साल की शख्सियत के रूप में जिसे चुना वह 'यू' था, यानी एक आम नागरिक जो अब खुद को अभिव्यक्त कर सकता है।
समाचार की दुनिया में आए इन तमाम बदलावों को ब्रिटेन और अमेरिका के बहुत से मीडिया विशेषज्ञ सकारात्मक नजरिए से देख रहे हैं। उनका मानना है कि आज समाचार एजेंसियों के पास पहले के मुकाबल कहीं ज्यादा बड़ा और विविधता से भरा बाजार है। नई तकनीकी ने यह सुविधा दी है कि किसी भी मुद्दे, किसी भी खबर या तस्वीर को चंद मिनटों में दुनिया के किसी भी कोने में भेजा जा सकता है। खर्चे घटाने के लिए न्यूज इंडस्ट्री में चल रही कवायद का सीधा फायदा भी समाचार एजेंसियों को पहुंचा है। इसकी वजह से तमाम अखबारों तथा वेबसाइट्स की निर्भरता एसोसिएटेड प्रेस और रायटर्स पर बढ़ी है। एक ऐसे दौर में जब सारी वैश्विक स्तर पर मीडिया में नौकरी के आप्शन घट रहे हैं सीएनएन जैसी समाचार एजेंसियों में बड़े पैमाने पर होने वाली नियुक्तियां इस बात का संकेत देती हैं कि समाचार एजेंसियों का भविष्य उज्ज्वल है। इंटरनेट पर मौजूद फाइनेंशियल न्यूज अखबारों के मुकाबले ज्यादा लोकप्रिय हो रहे हैं क्योंकि वह तत्काल सुलभ है और एक व्यावसायी की आवश्यकताओं से काफी मेल खाता है।
बदलती तकनीकी समाचार प्रस्तुतिकरण की शैली में भी बदलाव की मांग करती है। माना जा रहा है कि अब समाचार की भाषा ज्यादा चुस्त, संक्षिप्त और सीधी बात कहने वाली हो। उन लोगों के पास लंबे-चौडे़ आलेख पढ़ने का बिल्कुल समय नहीं है जो अपनी मेल भी मुश्किल से चेक कर पाते हैं। सेल फोन पर समाचारों की तेजी से बढ़ती लोकप्रियता के पीछे भी यही वजह है। समाचार एजेंसियों को प्रस्तुति के नए तरीकों को भी इस्तेमाल में लाना होगा, मसलन ग्राफिक्स, वीडियो और पॉडकास्टिंग- ताकि बदलते दौर में वे सूचनाएं देने में कहीं पिछड़ न जाएं।
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जनसत्ता में 'खबरों के बाजार में' शीर्षक से यह आलेख थोड़े संशोधित रूप में प्रकाशित
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