मंगलवार, 5 जनवरी 2010

बदलती दुनिया में खबरें


सारी दुनिया की समाचार एजेंसियों के लिए यह एक कठिन दौर है। सूचना प्रौद्योगिकी के तेजी से बढ़ते दखल और सारी दुनिया में इंटरनेट के असीमित विस्तार ने उनके सामने नई चुनौतियां खड़ी कर दी हैं। सारी दुनिया में यह माना जा रहा है कि समाचार एजेंसियों का भविष्य तभी सुरक्षित है जब वे बदलती टेक्नोलॉजी को आत्मसात करने और बाजार की नई जरूरतों को समझने में तत्परता दिखाएंगी। अमेरिका के तमाम समाचार पत्र समूह- जो मंदी के चलते अपने स्टाफ में कटौती करने और दूसरे देशों में स्थित ब्यूरो बंद करने में लगे हैं- मानते हैं कि समाचार एजेंसियों को अब खबर के प्राथमिक और विश्वसनीय स्रोत भर होने की अपनी भूमिका में बदलाव लाना होगा।

एजेंसियों के प्रति सकारात्मक रुख रखने वाले मीडिया विशेषज्ञ मार्सेल फेनेज का मानना है कि बीते 12 सालों में इंटरनेट और मोबाइल के विस्तार ने एजेंसियों के लिए असीमित संभावनाओं को जन्म दिया और उसके लिए एक बिल्कुल नया बाजार सामने आया है। मगर उनका कहना है कि अगर समाचार एजेंसियां इसका लाभ उठाना चाहती हैं तो उन्हें मल्टीमीडिया की अवधारणा को समझते हुए नई तकनीकी के साथ चलना होगा और खबरों में वीडियो और तस्वीरों की अहमियत को स्वीकार करना होगा।

आम तौर पर न्यूज एजेंसी को विभिन्न समाचार उद्योगों को खबरें और कंटेट मुहैया कराने वाली संस्था के रूप में परिभाषित किया जाता है। इतिहास में सबसे पुरानी समाचार एजेंसी के रूप में एएफपी का नाम सामने आता है, जिसने 1835 में अपनी सेवाएं देना आरंभ किया था। इसे पेरिस के एक अनुवादक और विज्ञापन एजेंट चार्ल्स लुइस ने स्थापित किया। बाद में उनके दो कर्मचारी पॉल जुलिएस रॉयटर और बर्नार्ड वूल्फ ने लंदन और बर्लिन में प्रतिद्वंद्वी समाचार एजेंसियों की स्थापना की। शानदार इतिहास और दो विश्व युद्धों की गवाह रह चुकी इन समाचार एजेंसियों का चेहरा बीते 20 वर्षों में तेजी से बदला है। सिर्फ भारत में ही नहीं ब्रिटेन तक में राष्ट्रीय अखबारों की अवधारणा खत्म हो रही है और वहां भी 'प्रोविंसियल न्यूज' का बोलबाला है। दुनिया भर के अखबारों में खर्चे कम करने और स्टाफ घटाने की कवायद चल रही है, ऐसी स्थिति में समाचार एजेंसियों के प्रति उनके रवैये में बदलाव भी आया है। वहीं एजेंसियों या वायर्ड सर्विसेज के लिए हर रोज बदलती जरूरतों को समझना काफी कठिन होता जा रहा है।

इंटरनेट के इस दौर में एजेंसियों के सामने सिटिजन जर्निलिज्म भी एक नई चुनौती बनकर सामने आई है। सिटिजन जर्लनलिज्म को मीडिया में आम जनों की भागीदारी या लोकतांत्रिक पत्रकारिता के रूप में देखा जा सकता है। सूचनाओं को दूसरों तक पहुंचाने के इस नए माध्यम ने मीडिया की सक्रियता, रिपोर्टिंग, विश्लेषण और सूचना के प्रसार में अहम भूमिका निभाई है।

दरअसल सिटिजन जर्नलिज्म का विकास इंटरनेट के उस दौर में हुआ, जो नेट की भाषा में 'यूजर जेनरेटेड कंटेट' पर आधारित था। इसे जन्म दिया था तेजी ने उभरती इंटरनेट और नेटवर्किंग टेक्नोलॉजी ने, जैसे कि ब्लाग, चैट रूम, मैसेज बोर्ड, विभिन्न इंटरनेट समूह और मोबाइल कंप्यूटिंग। बदलती तकनीकी ने यह सुविधा लेकर आई कि खबर पढ़ने वाला अपनी राय दे सकता है, किसी मुद्दे पर अपना मत प्रदान कर सकता है और खुद वहां जाकर लिख भी सकता है। यह ब्लागर्स और यूजर जेनरेटेड कंटेट की ही देन थी कि सन् 2006 में टाइम मैगजीन ने साल की शख्सियत के रूप में जिसे चुना वह 'यू' था, यानी एक आम नागरिक जो अब खुद को अभिव्यक्त कर सकता है।

समाचार की दुनिया में आए इन तमाम बदलावों को ब्रिटेन और अमेरिका के बहुत से मीडिया विशेषज्ञ सकारात्मक नजरिए से देख रहे हैं। उनका मानना है कि आज समाचार एजेंसियों के पास पहले के मुकाबल कहीं ज्यादा बड़ा और विविधता से भरा बाजार है। नई तकनीकी ने यह सुविधा दी है कि किसी भी मुद्दे, किसी भी खबर या तस्वीर को चंद मिनटों में दुनिया के किसी भी कोने में भेजा जा सकता है। खर्चे घटाने के लिए न्यूज इंडस्ट्री में चल रही कवायद का सीधा फायदा भी समाचार एजेंसियों को पहुंचा है। इसकी वजह से तमाम अखबारों तथा वेबसाइट्स की निर्भरता एसोसिएटेड प्रेस और रायटर्स पर बढ़ी है। एक ऐसे दौर में जब सारी वैश्विक स्तर पर मीडिया में नौकरी के आप्शन घट रहे हैं सीएनएन जैसी समाचार एजेंसियों में बड़े पैमाने पर होने वाली नियुक्तियां इस बात का संकेत देती हैं कि समाचार एजेंसियों का भविष्य उज्ज्वल है। इंटरनेट पर मौजूद फाइनेंशियल न्यूज अखबारों के मुकाबले ज्यादा लोकप्रिय हो रहे हैं क्योंकि वह तत्काल सुलभ है और एक व्यावसायी की आवश्यकताओं से काफी मेल खाता है।

बदलती तकनीकी समाचार प्रस्तुतिकरण की शैली में भी बदलाव की मांग करती है। माना जा रहा है कि अब समाचार की भाषा ज्यादा चुस्त, संक्षिप्त और सीधी बात कहने वाली हो। उन लोगों के पास लंबे-चौडे़ आलेख पढ़ने का बिल्कुल समय नहीं है जो अपनी मेल भी मुश्किल से चेक कर पाते हैं। सेल फोन पर समाचारों की तेजी से बढ़ती लोकप्रियता के पीछे भी यही वजह है। समाचार एजेंसियों को प्रस्तुति के नए तरीकों को भी इस्तेमाल में लाना होगा, मसलन ग्राफिक्स, वीडियो और पॉडकास्टिंग- ताकि बदलते दौर में वे सूचनाएं देने में कहीं पिछड़ न जाएं।
____________________________________________

जनसत्ता में 'खबरों के बाजार में' शीर्षक से यह आलेख थोड़े संशोधित रूप में प्रकाशित

सोमवार, 21 दिसंबर 2009

साइबर समाज में जनतंत्र


कम से कम जिस तरह अमर्त्य सेन ने अपनी किताब ‘द आर्ग्यूमेंटेटिव इंडियन’ में एक महाबहस की परंपरा में भारतीयता को पहचानने की कोशिश की थी, हम हल्के-फुल्के तौर पर यह तो मान सकते हैं हम हिन्दुस्तानी बहसबाज और जमकर बतकही करने वालों में हैं। यह बहसबाजी वेब 2.0 के दौर में भी अपना रंग दिखा रही है। दुनिया भर में इंटरनेट का इस्तेमाल करने वाले लोगों का आंकड़ा 2013 तक बढ़कर 2.2 अरब हो जाने की उम्मीद है। बढ़ोतरी में सबसे ज्यादा योगदान एशिया का रहेगा और भारत इंटरनेट यूजर्स के मामले में चीन और अमेरिका के बाद तीसरे स्थान पर होगा। भारत में सोशल नेटवर्किंग साइट्स का इस्तेमाल करने वालों में पिछले साल की तुलना में 51 प्रतिशत की वृद्धि हुई है।

इंटरनेट के इस्तेमाल में भारत की बड़ी हिस्सेदारी जहां चौंकाती है, वहीं ऑनलाइन बिजनेस में इतना बड़ा बाजार बहुत सी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए आकर्षण बन रहा है। मगर इंटरनेट स्पेस में बहस करता यह भारतीय साइबर समाज क्या सचमुच किसी बड़े बदलाव का वाहक बनने जा रहा है? वह भी एक ऐसा मध्यवर्गीय समाज जिसके बारे में पवन कुमार वर्मा ने अपनी किताब ‘द ग्रेट इंडियन मिडल क्लास’ में चिंता जताते हुए लिखा था, 'परेशानी इस बात की है कि इस देश के सर्वाधिक प्रतिभाशाली तत्व अपनी सामाजिक निष्ठुरता के साथ 'श्रेष्ठ' बने रहने में ही संतुष्ट हैं। ...जाहिर है ऐसे प्रतिभासंपन्न लोगों के देश के साथ कुछ गंभीर गड़बड़ जरूर है।'

इस जगह हमें यह भी सोचना होगा कि क्या वास्तव में एक टेक्नोलॉजी हमारे समाज को बदल रही है या यह महज एक भ्रम है? मनुष्य और टेक्नोल़ॉजी के रिश्तों से जुड़ी इस पेचीदगी को समझने के लिए हम थोड़ा पीछे की तरह चलते हैं। जब ‘द इकोनॉमिस्ट' पत्रिका ने बीसवीं शताब्दी का लेखाजोखा करते हुए लिखा था, 'इस सदी में रेलवे की अहमियत को सिर्फ लोगों और माल को दूर-दराज पहुंचाने तक सीमित नहीं किया जा सकता, बल्कि इस प्रक्रिया में तेजी से विचारों का भी आदान-प्रदान हो रहा था, विचार; जो घुमक्कड़ों के जेहन में थे, चिट्ठियों में थे, किताबों में और अखबारों में थे।'

इक्कीसवीं शताब्दी में इंटरनेट इसके उलट स्थानीयता की सीमाओं का अतिक्रमण करते हुए दो-तरफा संवाद की असीमित संभावनाओं को जन्म दे रहा है। सिटिजन जर्लनलिज्म को मीडिया में आम जनों की भागीदारी या लोकतांत्रिक पत्रकारिता के रूप में देखा जा सकता है। अपनी किताब 'हाऊ आडिएंसेज आर शेपिंग द फ्यूचर आफ न्यूज एंड इन्फार्मेशन' में शाइनी बोमैन और क्रिस विलिस कहते हैं, 'मूलतः लोगों की भागीदारी के इरादे के साथ खड़े किए गए इस सूचना नेटवर्क ने पहली बार एक स्वतंत्र, निष्पक्ष, खरे और ऐसे विस्तृत माध्यम को जन्म दिया है जिसकी एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में सचमुच जरूरत है।'

सिटिजन जर्नलिज्म का विकास इंटरनेट के उस दौर में हुआ, जो नेट की भाषा में 'यूजर जेनरेटेड कंटेट' पर आधारित था। बदलती तकनीकी यह सुविधा लेकर आई कि खबर पढ़ने वाला अपनी राय दे सकता है, किसी मुद्दे पर अपना मत प्रदान कर सकता है और खुद वहां जाकर लिख भी सकता है।

दक्षिण कोरिया की वेबसाइट 'ओह माई न्यूज' को इसी अवधारणा के चलते जबरदस्त सफलता मिली। उसका नारा था- 'हर नागरिक एक रिपोर्टर है'। वेबसाइट के पास 40 से ज्यादा रिपोर्टर और संपादकों की टीम है जिसका कुल कंटेट के सिर्फ 20 प्रतिशत योगदान है। 'ओह माई न्यूज' ने 50 हजार से ज्यादा स्वतंत्र नागरिक पत्रकार तैयार किए जिनकी मदद से वेबसाइट ने वहां के रुढ़िवादी राजनीति माहौल में हस्तक्षेप कर उसके खिलाफ जनमत तैयार करने में अहम भूमिका निभाई।

ब्लाग लेखन भी पारंपरिक समाचार स्रोतों के सामने चुनौती बनकर सामने आया है। बहुत से ब्लागर्स ने लोकतांत्रिक या भागीदारी पत्रकारिता को चुनकर खुद को मुख्यधारा मीडिया के सामने एक विकल्प के तौर पर खड़ा किया है। ब्लाग के विस्तार को हम सूचनाओं के बाजारीकरण के खिलाफ एक विद्रोह के रूप में देख सकते हैं। यह ब्लागर्स और यूजर जेनरेटेड कंटेट की ही देन थी कि सन् 2006 में टाइम मैगजीन ने साल की शख्सियत के रूप में जिसे चुना वह 'यू' था, यानी एक आम नागरिक जो अब खुद को अभिव्यक्त कर सकता है। गौर करें तो बदलाव की इस आधी तस्वीर को पूरा कर रहे हैं अमेरिका के तमाम समाचार पत्र समूह- जो अब स्वीकारने लगे हैं कि समाचार एजेंसियों को अब खबर के प्राथमिक और विश्वसनीय स्रोत भर होने की अपनी भूमिका में बदलाव लाना होगा।

भारतीय संदर्भ में देखें तो युवाओं का राजनीतिक रुझान तेजी से घटा है। उदारीकरण के बाद युवाओं में राजनीतिक उदासीनता के चलते ही भाजपा जैसी पार्टियों ने बीते चुनाव में उनका राजनीतिक ध्रुवीकरण कॉलेज कैंपस की बजाय सोशल नेटवर्किंग साइट्स के जरिए करने का प्रयास किया। तस्वीर का दूसरा दिलचस्प पहलू था मतदाताओं को जागरुक करने का अभियान। मुंबई वोटर्स, स्मार्ट वोटर्स , जागो रे और रफ्तार जैसी वेबसाइट्स ने लोगों को वोटर आईडी हासिल करने, वोट डालने से संबंधित जानकारी देने के अलावा लोकसभा प्रत्याशियों का प्रोफाइल भी मुहैया करा दिया।

शायद माध्यम का यह लचीलापन ही इससे उम्मीद जताता है। यह आरंभिक दौर में छापाखाने के 'बुलेटिन' अथवा 'उपदेशात्मकता' और टेलीविजन की 'डिक्टेटरशिप' के विपरीत ज्यादा प्रजातांत्रिक माध्यम है। इसीलिए दुनिया की सबसे बड़ी डेमोक्रेसी में इस 'प्रजातांत्रिक माध्यम' की अहमियत बढ़ जाती है। क्योंकि यह बोलने और जानकारी हासिल करने की आजादी देता है।
__________________________________________________

यह आलेख 'समकालीन जनमत' के दिसंबर अंक में प्रकाशित

गुरुवार, 17 दिसंबर 2009

गूगल-गूगल कित्ता पानी


गूगल ने पिछले दिनों समंदर के भीतर भी कदम रख दिए। गूगल अर्थ के बाद की सबसे महत्वाकांक्षी परियोजना गूगल ओशन में हमारी दुनिया में मौजूद महासागरों और साइबर स्पेस में सूचनाओं के महासागर का अद्भुत संगम देखने को मिलता है। सतह के भीतर की समुद्री दुनिया का थ्री-डी सैर के बीच आप दुनिया के जाने-माने साइंटिस्ट, रिसर्चर और समुद्री खोजकर्ताओं से मिली जानकारियों को महज एक क्लिक में हासिल कर सकते हैं। दरअसल गूगल ओशन की अनोखी परिकल्पना को हम एक सिंबल के रूप में देख सकते हैं।

हकीकत यह है कि गूगल लगातार उन क्षेत्रों में विस्तार करता जा रहा है, जिनके बारे में पहले कभी सोचा ही नहीं गया था। इस वक्त गूगल अर्थ के जरिए नदियों की हजारों मील लंबी विलुप्त सीमाओं को मापने का काम चल रहा है। माना जा रहा है कि यह भविष्य में कई अंतरराष्ट्रीय विवादों का निबटारा करने में मदद पहुंचायेगा। डरहम विश्वविद्यालय के अंतरराष्ट्रीय सीमा शोध इकाई के रिसर्चर्स ने पाया कि विश्व की नदियों की सात फीसदी सीमा रेखा विलुप्त हो गई है।

दूसरी तरफ भारत जैसे देशों में गूगल अपनी मैप मेकर सेवा का विस्तार कर रहा है। इसकी मदद से लोग अपने-अपने इलाकों के नक्शे तैयार कर सकते हैं। भारत जैसे बड़े देश के लिए जहां कई इलाकों के सही और विस्तृत नक्शे उपलब्ध नहीं हैं, वहां गूगल की मैप मेकर सेवा एक वरदान बनकर सामने आई है। सेवाओं में विस्तार की नीति के तहत गूगल ने अमेरिका की घरेलू सेवाओं में भी कदम रख दिया है। वहां गूगल की एक नई सेवा के तहत लोग घर में बिजली व कुकिंग गैस की दैनिक खपत को जान सकेंगे। जानकारी उनको हर घंटे अपने कंप्यूटर या मोबाइल पर मिल जाएगी। ‘गूगल पावर मीटर’ नाम की इस सेवा से अगले 10 साल में 10 करोड़ लोगों को जोड़ने का इरादा है। इसके लिए तैयार एक खास सॉफ्टवेयर आईगूगल के होम पेज से डाउनलोड किया जा सकेगा। वहीं सैन फ्रांसिस्को में गूगल ने अपनी वॉइस मेल सेवा को आम लोगों के लिए खोल दिया है। लोगों की जरूरतों को देखते हुए सेवा में कई सुधार भी किए गए हैं।

गूगल भारत में अपनी इसी रणनीति का विस्तार चाहता है, इसके संकेत हाल ही तब मिले जब गूगल ने नागरिकों को विशेष पहचान संख्या (यूआईडी) देने की महत्वाकांक्षी परियोजना से जुड़ने का इरादा जाहिर किया। गूगल इंडिया के प्रबंध निदेशक ने मीडिया से कहा था कि कंपनी अपनी तरफ से सरकार से संपर्क नहीं करेगी, यह फैसला सरकार को करना होगा कि हम कैसे मददगार हो सकते हैं।

कंपनी भारत में थ्री-जी की भी गहराई से स्टडी कर रही है। गूगल की दिलचस्पी देश में बीडब्ल्यूए स्पेक्ट्रम में बढ़ रही है। माना जा रहा है कि भारत में ब्रॉडबैंड वायरलेस तकनीक का इस्तेमाल तेजी से बढ़ने जा रहा है और फिक्स्ड लाइन इंटरनेट की जगह मोबाइल इंटरनेट पर विज्ञापनों की भरमार हो जाएगी। ऑनलाइन बिजनेस में गूगल ऐडवर्टीजमेंट्स की हिस्सेदारी सबसे ज्यादा है, इसलिए गूगल का रुझान नेचुरल है। अभी गूगल ने मोबाइल फोन पर ऐड अवेलवेल कराने वाली कंपनी एड़ोब को खरीदने के लिए 75 करोड़ डॉलर चुकाने के फैसले के साथ ही ऑनलाइन मोबाइल विज्ञापन में विस्तार की कंपनी की रणनीति का संकेत दे दिया है।

इंटरनेट सर्विसेज़ में भी गूगल का एकाधिकार है। गूगल ने क्रोम वेब ब्राउजर लांच करने के नौ महीने बाद ही क्रोम आधारित वेब ब्राउजर की झलक भी दिखा दी। कंपनी का मकसद लोगों को एक ऐसा आपरेटिंग सिस्टम देना है जो तेज हो और इंटरनेट से लगातार जुड़ा हो। नेटबुक खोलते ही क्रोम ओएस खुल जाएगा यानी यूजर को ओपरेटिंग सिस्टम लोड होने का इंतजार नहीं करना होगा। इसे ओपेन सोर्स की तर्ज पर विकसित किया जा रहा है और इसमें यूजर अपनी जरूरत के मुताबिक बदलाव कर सकेगा।

यूजर को दी जाने वाली अन्य सुविधाओं में एक 'सोशल सर्च' इंजन पर गूगल काम कर रहा है। इसके जरिए ब्लॉग्स और ट्विटर जैसी सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट पर मौजूद लोगों को आसानी से ढूंढ़ा जा सकेगा। वहीं एक साल के भीतर जीमेल को वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग में बदलने का इरादा है। इसके अलावा गूगल पर प्रतिदिन लाखों की संख्या में गानों से संबंधित खोज की जाती है। लिहाजा गूगल ने lala.com और मायस्पेस के ilike.com से गठबंधन किया है। अब जब भी गूगल पर किसी गाने की खोज की जाएगी तो गाने से संबंधित कड़ियों के अलावा म्यूज़िक प्लेयर भी दिखेगा, जिसकी मदद से गाने को सुना जा सकेगा।

इतना ही नहीं इंटरनेट ब्राउज़िंग को नया आयाम देने और आँकड़ों के ओनलाइन स्थानांतरण को तेज गति प्रदान करने के लिए गूगल की टीम एक नए प्रोटोकोल को विकसित कर रही है। इस पूरी परियोजना का नाम है प्रोजेक्ट स्पीडी. प्रोजेक्ट के तहत एक नया इंटरनेट प्रोटोकोल विकसित किया जा रहा है जो है – spdy:// . गूगल के अनुसार यह नया प्रोटोकोल वर्तमान प्रोटोकोल http:// से अधिक तेज कार्य करेगा।

इस तेज विस्तारवादी नीति के चलते गूगल कई बार विवादों में भी घिर जाता है। इन विवादों की ताजा कड़ी में दुनिया की दो बड़ी समाचार संस्थाओं की यह टिप्पणी शामिल है कि गूगल सहित अन्य सर्च इंजनों को न्यूज़ उपलब्ध कराने के बदले भुगतान करना होगा। रूपर्ट मर्डोक तो गूगल द्वारा उनके न्यूज़ कंटेट के इस्तेमाल पर रोक लगाने की तैयारी में हैं। भारत में गूगल तब विवादास्पद हुआ जब गूगल अर्थ में सुरक्षा के लिहाज से संवेदनशील हिस्से आसानी से देखे जाने लगे। दूसरा विवाद उस वक्त हुआ जब उसने गूगल-मैप में भारतीय भूभाग को चीन का हिस्सा दिखाना शुरू कर दिया। हालांकि कुछ खबरों के मुताबिक बीच में गूगल ने इसे मानवीय भूल बताते हुए संशोधित करने की बात भी कही थी। वहीं चीन के विदेश मंत्रालय ने आरोप लगाया कि इंटरनेट सर्च इंजन गूगल का अंग्रेजी संस्करण अश्लील सामग्री फैलाकर देश के कानून का उल्लंघन कर रहा है।

मगर गूगल की तेज रफ्तार के बीच यह छोटे-मोटे झटके ही कहे जाएंगे। जैसा कि मैंने पहले कहा कि महासागर की गहराइयों को नापने के साथ-साथ वह सूचना महासागर की अथाह गहराइयों में डुबकी लगा रहा है। हम तो हर रोज उनके नए एप्लीकेशंस और सर्विसेज के बीच यही पूछ सकते हैं, गूगल-गूगल कित्ता पानी....
________________________________________

'आई-नेक्स्ट' में 22 नवंबर 2009 के अंक में प्रकाशित

गुरुवार, 20 अगस्त 2009

कॉमिक्सः वो कहानियां, वो किरदार

इंद्रजाल कॉमिक्स में जाहिर तौर पर ली फॉक के किरदार ही छाए रहे, मगर बीच का एक दौर ऐसा था जब इसने कुछ नए और बड़े ही दिलचस्प कैरेक्टर्स से भारतीय पाठकों से रू-ब-रू कराया। मैं उन्हीं किरदारों पर कुछ चर्चा करना चाहूंगा। कॉमिक्स की बढ़ती लोकप्रियता के चलते 1980 में टाइम्स ग्रुप ने इसे पाक्षिक से साप्ताहिक करने का फैसला कर लिया। यानी हर हफ्ते एक नया अंक। शायद प्रकाशकों के सामने हर हफ्ते नई कहानी का संकट खड़ा होने लगा। 1981-82 में अचानक इंद्रजाल कॉमिक्स ने किंग फीचर्स सिंडीकेट की मदद से चार-पांच नए किरदार इंट्रोड्यूस किए। मेरी उम्र तब करीब दस बरस की रही होगी। मुझे ये किरदार बहुत भाए। इसकी एक सबसे बड़ी वजह यह थी कि ये सारे कैरेक्टर वास्तविकता के बेहद करीब थे। उन कहानियों में हिंसा बहुत कम थी और वे एक खास तरीके से नैतिक मूल्यों का समर्थन करते थे।


सबसे पहले जो कैरेक्टर सामने आया वह था कमांडर बज सायर का। कमांडर सायर की पहली स्टोरी इंद्रजाल कॉमिक्स में शायद खूनी षड़यंत्र थी। कमांडर सायर की कहानियों की सबसे बड़ी खूबी यह थी कि उनके कैरेक्टर वास्तविक जीवन से उठाए हुए होते थे। इनके नैरेशन में ह्मयूर का तड़का होता था। इनमें से कई कहानियां क्राइम पर आधारित नहीं होती थीं। वे सोशल किस्म की कहानियां होती थीं। जैसा कि मुझे याद है एक कहानी सिर्फ इतनी सी थी कि एक बिल्ली का बच्चा पेड़ पर चढ़ जाता है और उतरने का नाम नहीं लेता। फायर ब्रिगेड वाले भी कोशिश करके हार जाते हैं। आखिर कमाडंर सायर पेड़ पर चढ़कर उसे पुचकार कर उतारते हैं। एक अकेली विधवा मां और उसके बच्चे की कहानी, अनजाने में अपराधी बन गए दो बच्चों की कहानी... कुछ यादगार अंक हैं। आम तौर पर इनका कैनवस अमेरिकन गांव हुआ करते थे।


इसके तुरंत बात दूसरा कैरेक्टर इंट्रोड्यूस हुआ कैरी ड्रेक का। ड्रेक एक पुलिस आफिसर था। यहां भी कुछ खास था। पहली बात किसी भी कॉमिक्स मे कैरी ड्रेक बहुत कम समय के लिए कहानी में नजर आता था। अक्सर ये कहानियां किसी दिलचस्प क्राइम थ्रिलर की बुनावट लिए होती थीं। कैरेक्टराइजेशन बहुत सशक्त होता था। एक और खास बात थी कैरी ड्रेक के अपराधी किसी प्रवृति के चलते अपराध नहीं करते थे। अक्सर परिस्थितियां उन्हें अपराध की तरफ ढकेलती थीं और वे उनमें फंसते चले जाते थे। इन कहानियों का सीधा सा मोरल यह था कि अगर अनजाने में भी आपने गुनाह की तरफ कदम बढ़ा लिए तो आपको अपने जीवन में उसकी एक बड़ी कीमत चुकानी पड़ेगी और तब पछतावे के सिवा कुछ हाथ नहीं लगे। कुछ अपनी जिद, तो कुछ अपनी गलत मान्यताओं के कारण अपराध के दलदल में फंसते चले जाते थे। हर कहानी में एक केंद्रीय किरदार होता था। उसके इर्द-गिर्द कुछ और चरित्र होते थे। उन्हें बड़ी बारीकी से गढ़ा जाता था। अब मैं उन तमाम चरित्रों को याद करता हूं तो यह समझ मे आता है कि उसके रचयिता ने तमाम मनोवैज्ञानिक पेंच की बुनियाद पर उन्हें सजीव बनाया जो कि वास्तव में एक कठिन काम है और हमारे बहुत से साहित्यकार भी इतने वास्तविक और विश्वसनीय चरित्र नहीं रच पाते।


इसके बाद बारी आती है रिप किर्बी की। इंद्रजाल में रिप किर्बी की पहली कहानी हिन्दी में रहस्यों के साए और अंग्रेजी में द वैक्स एपल के नाम से प्रकाशित हुई थी। साफ-सुथरे रेखांकन वाली इन कहानियों मे एक्शन बहुत कम होता था। मुझे रिप किर्बी की एक कहानी आज भी याद है, जिसमें रिप किर्बी और उनका सहयोगी एक ऐसे टापू पर जा पहुंचते हैं जो अभी भी 1830 के जमाने में जी रहा है। बाहरी दुनिया से उनका संपर्क हमेशा के लिए कट चुका है। वहां पर अभी भी घोड़ा गाड़ी और बारूद भरकर चलाई जाने वाली बंदूके हैं।




इस पूरी सिरीज में मुझे सबसे ज्यादा पसंद माइक नोमेड था। अभी तक मैंने किसी भी पॉपुलर कॉमिक्स कैरेक्टर का ऐसा किरदार नहीं देखा जो बिल्कुल आम आदमी हो। उसके भीतर नायकत्व के कोई गुण नहीं हों। यदि आपने कुछ समय पहले नवदीप सिंह की मनोरमा सिक्स फीट अंडर देखी हो तो अभय देओल के किरदार में आप आसानी से माइक नोमेड को आइडेंटीफाई कर सकते हैं। यह इंसान न तो बहुत शक्तिशाली है, न बहुत शार्प-तीक्ष्ण बुद्धि वाला, न ही जासूसी इसका शगल है। माइक नोमेड के भीतर अगर कोई खूबी है तो वह है ईमानदारी। अक्सर माइक को रोजगार की तलाश करते और बे-वजह इधर-उधर भटकते दिखाया जाता था। सच्चाई तो यह थी कि ये कैरेक्टर्स भारतीय पाठकों को बहुत अपील नही कर सके और इंद्रजाल प्रकाशन इनके जरिए फैंटम या मैंड्रेक जैसी लोकप्रियता नहीं हासिल कर सका।


एक और कैरेक्टर था गार्थ का। इस किरदार का संसार सुपरनैचुरल ताकतों से घिरा था। गार्थ अन्य कैरेक्टर्स के मुकाबले थोड़ा वयस्क अभिरुचि वाला था। गार्थ के रचयिताओं ने कई बेहतरीन क्राइम थ्रिलर भी दिए हैं। इसमें से एक तो इतना शानदार है कि बॉलीवुड में अब्बास-मस्तान उसकी नकल पर एक शानदार थ्रिलर बना सकते हैं। कहानी है जुकाम के उत्परिवर्ती वायरस की जो बेहतर घातक है [कुछ-कुछ स्वाइन फ्लू की तरह], इसकी खोज करने वाले प्रोफेसर की हत्या हो जाती है। प्रोफेसर की भतीजी, गार्थ और गार्थ के प्रोफेसर मित्र इस मामले का पता लगाने की कोशिश करते हैं। पता लगता है कि कुछ सेवानिवृत अधिकारियों और रसूख वालों ने अपराधियों को खत्म करने का जिम्मा उठाया है, एक गोपनीय संगठन के माध्यम से। वे एक के बाद एक अपराधियों को पहचान कर उन्हें ठिकाने लगाने में जुटे हैं। यह रोमांचक तलाश उन्हें ले जाती है हांगकांग तक, जहां एक बेहतर खूबसूरत माफिया सरगना इस त्रिकोणीय संघर्ष का हिस्सा बनती है। संगठन से जुड़े लोग हांगकांग की सड़कों पर मारे जाते हैं और उनका सरगना अपना मिशन फेल होने पर आत्महत्या कर लेता है।


इंद्रजाल की इस श्रंखला का आखिरी कैरेक्टर था सिक्रेट एजेंट कोरिगन। इस सिरीज के तहत प्रकाशित कहानियां दो किस्म की थीं। दोनों के चित्रांकन और कहानी कहने का तरीका बेहद अलग था। पहला वाला बेहद उलझाऊ और दूसरा बहुत ही सहज और स्पष्ट। पहले किस्म की कोरिगन की कहानियों को पढ़कर समझ लेना मेरे लिए उन दिनों एक चुनौती हुआ करता था। उन्हें पढ़ने के लिए विशेष धैर्य की जरूरत पड़ती थी, लगभग गोदार की फिल्मों की तरह। इसके रचयिता कम फ्रेम में बात कहने की कला में माहिर थे। मगर नैरेशन की कला का वे उत्कृष्ट उदाहरण थीं इनमें कोई शक नहीं।

एक्सट्रा शॉट्स

मेरी जानकारी में इंद्रजाल कॉमिक्स ने दो बिल्कुल अलग तरह की कॉमिक्स निकाली है। इनमें से एक है मिकी माउस की प्रलय की घड़ी। यह संभवतः साठ के दशक में प्रकाशित एक जासूस कहानी थी। मिकी माउस और गुफी के अलावा सारे चरित्र रियलिस्टिक थे। कहानी वेनिस की पृष्ठभूमि पर थी। वेनिस की नहरों, वहां की गलियों और पुलों का बेहद खूबसूरत चित्रण, उस कॉमिक्स के जरिए ही मैं वेनिस के बारे में जान सका। कहानी थी म्यूजियम में रखे गई एक अद्भुत मशीन की, जिसकी किरणें अगर किसी को ढक लें तो वह अदृश्य हो जाएगा। कुछ लोग साजिश रचकर वेनिस के जलमग्न होकर डूब जाने की अफवाह फैला देते हैं। देखते-देखते लोगों में भगदड़ मच जाती है और वे शहर छोड़कर जाने लगते हैं। इस बीच चोरों का दल उस मशीन को चुराने की कोशिश करता है जिसे मिकी माउस और गुफी नाकाम कर देते हैं।

सन् अस्सी में बाहुबली का मस्तकाभिषेक हुआ, जो हर बारह वर्ष बाद होता है। इसे उस दौर के मीडिया ने बहुत कायदे से कवर किया। शायद यह इंद्रजाल के मालिकानों की ख्वाहिश रही होगी, उस वक्त एक विशेष विज्ञापन रहित अंक निकला था जो अमर चित्रकथा स्टाइल में बाहुबली की कथा कहता था।
______________________________________________________

यह पोस्ट मूल रूप से इंद्रजाल कॉमिक्स का स्वप्नलोक में प्रकाशित

मंगलवार, 16 जून 2009

हंसी के विरुद्ध


जिन लोगों ने हाल में प्रदर्शित अनुराग कश्यप की फिल्म 'गुलाल' देखी होगी वे फिल्म के उस दृश्य को कभी नहीं भूल पाएंगे, जब सनकी से किरदार में पियूष मिश्र अपने हिजड़े साथी के संग गीत गाते घूमते हैं और अपनी हार से तिलमिलाए केके खुद पर यह व्यंग बर्दाश्त नहीं कर पाता और हिजड़े को गोली मार देता है। तंज़ को बर्दाश्त न कर पाना और एक हिजड़े को मारना दरअसल सत्ता के दंभ से भरे उस पात्र के खोखलेपन को दर्शाता है। सत्ता का अहंकार कभी हँसी बर्दाश्त नहीं कर सकता। गुलाल के इस दृश्य को भारतीय सिनेमा के महानतम दृश्यों में रखा जाना चाहिए जो एक साथ न जाने कितने अर्थ खोलता है। पियूष का गान और हिजड़े की वेशभूषा दरअसल उस खत्म होती लोक-कला की याद दिलाते हैं जो समाज पर कटाक्ष करने का दम रखती थी।

मुझे याद है कुछ समय पहले पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने भारतीय मीडिया को सलाह दी थी कि कार्टून को पहले पेज पर वापस लाया जाए। उनके इस प्रस्ताव ने मीडिया में थोड़े समय के लिए ही सही एक बहस शुरु कर दी थी। माना जा रहा है कि दुनिया भर के मीडिया में कार्टून अब हाशिए पर खिसकते जा रहे हैं। देश के कुछ जाने-माने कार्टूनिस्टों की टिप्पणी थी कि यह दरअसल एक ऐसे समाज का संकेत है जहां असहमति के लिए गुंजाइश खत्म होती जा रही है, जबकि कार्टून विधा के मूल में ही आलोचना और असहमति मौजूद है।

इसका ताजा उदाहरण कुछ समय पहले 'न्यूयार्क पोस्ट' में प्रकाशित एक कार्टून को लेकर उठे विवाद में देखा जा सकता है। 'द न्यूयार्क पोस्ट' में प्रकाशित इस कार्टून में एक चिम्पांजी को दिखाया गया था। डेमोक्रेटिक नेताओं का कहना था कि इस कार्टून में चिम्पांजी की तुलना ओबामा से कर एक बार फिर अमेरिका में राख में दबी नस्लीय आग को हवा दी जा रही है। अश्वेत नेता अल शार्पटन का कहना था कि यह कार्टून एक तरह का हमला है, अफ्रीकी मूल के अमेरिकी को ही दरअसल बंदर के रूप में दर्शाया गया था। सीन डेलोनास के बनाए इस कार्टून के छपते ही अखबार के दफ्तर में इतने फोन आए थे कि वहां की टेलीफोन लाइन ही ठप हो गई। उल्लेखनीय है कि पिछले दिनों ओबामा को लक्ष्य करके बनाए गए कई अन्य कार्टूनों पर भी तीखी प्रतिक्रिया देखने को मिली है। ओबामा की उम्मीदवारी के दौरान न्यूयार्कर में छपे कार्टून पर भी ऐतराज हुआ।

हालांकि अमेरिका के इतिहास पर गौर करें तो वहां राजनीतिक पार्टियों के तौर-तरीकों पर व्यंगात्मक टिप्पणी का चलन बहुत पुराना है। राजनीतिक कार्टून के चितेरे थॉमस नेस्ट ने सन 1860 बाद होने वाले अमेरिका के राष्ट्रपति चुनावों पर जिस तरह अपनी पैनी नजर से डाली उससे तत्कालीन राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने उन्हें सदी के सर्वश्रेष्ठ कार्टूनिस्ट का खिताब दे डाला। कहा जाता है कि उनकी व्यंगात्मक शैली और विद्वतापूर्ण परिहास ने अमरीकियों की चुनावी प्रक्रिया में दिलचस्पी बढ़ाने का काम किया। उनके कार्टूनों की कितनी अहमियत थी, इसका अंदाजा सिर्फ इस बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने चुनाव से पहले अपने कार्टूनों में रिपब्लिकन पार्टी को प्रतीक के तौर पर हाथी दिखलाया था, और चुनाव के ठीक पहले पार्टी ने इसी हाथी को औपचारिक रूप से अपना चुनाव चिह्न बना लिया।

दरअसल परिहास आम जनता के लिए प्रतिरोध का सबसे सशक्त माध्यम रहा है। इसका सबसे दिलचस्प उदाहरण बुश को और फिर भारत में कई राजनेताओं पर जूते फेंके जाने की घटना मे देखा जा सकता है। जूता जाहिर तौर पर शारिरिक क्षति नहीं पहुंचाता मगर यह ठीक-ठीक गुलाल के पीयूष की तरह सत्ता के अहम् को चोट पहुंचाने की हैसियत रखता है। शायद यही वजह है कि ईराकी पत्रकार के जूता फेंकने की घटना के बाद देखते-देखते इंटनरेट पर इससे जुड़े तमाम चुटकुले लोकप्रिय हो गए। किसी चुटकुले में कहा गया कि ईराकी पत्रकार को जूते फेंकने की ट्रेनिंग आंतकवादी संगठन लश्कर-ए-तैयबा और जमात-उद-दावा से मिली, तो कहीं जूते का डीएनए टेस्ट किए जाने का जिक्र है।

तेजी से बढ़ती संचार क्रांति ने परिहास को छोटे समूहों के दायरे से बाहर निकाला है और यह कहीं ज्यादा तेजी से पॉपुलर होने लगा है, शायद इसीलिए यह सत्ताधारी लोगों को और ज्यादा खतरनाक लग रहा है। हंसी पर अंकुश लगाने का एक नया मामला पिछले दिनों तब सामने आया जब चीन की सरकार मोबाइल पर अपने नेताओं के बारे में भद्दे और मजाकिया संदेश के आदान-प्रदान से कसमसाने लगी। 'रेड टेक्स्ट मैसेज' के नाम से एक अभियान चलाया गया कि करीब 50 करोड़ मोबाइल धारकों को 'अभद्र संदेशों' की जगह स्वस्थ संदेश भेजने के लिए प्रेरित किया जाए, मगर सरकार की यह नैतिकतावादी कोशिश अपने-आप में ही एक मजाक में बदल गई।

भारत में तो सत्ता पर कटाक्ष की बहुत पुरानी परंपरा रही है। सबसे ज्यादा तो संस्कृत साहित्य में यह परिहास देखने को मिलता है। यहां तक कि पौराणिक साहित्य में देवी-देवताओं को भी मजाक का निशाना बनाया गया है। मुगलकाल के सामंती दबदबे में भी परिहास दब नहीं सकी और कहीं न कहीं उसने सत्ता को अपना निशाना बना ही डाला। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान जवाहरलाल नेहरू और गांधी जैसे नेताओं को भी व्यंग की पैनी धार का सामना करना पड़ा था। यदि सिर्फ उस दौर में छपे कार्टूनों को सिर्फ संग्रहित करके उनका विश्लेषण किया जाए तो स्वतंत्रात्योत्तर भारत को समझने की एक नई दृष्टि मिल सकती है। परिहास की सबसे बड़ी खूबी शायद यही होती है कि वह एक समाज के सामूहिक अवचेतन से जन्म लेता है। शायद इसी अवचेतन में मौजूद विद्रोह की जड़ों से सत्ता को हमेशा भय सताता रहता है।
_______________________________________________________

जनसत्ता के 27 मई 2009 के अंक में 'दुनिया मेरे आगे' में प्रकाशित लेख मूल रूप में

मंगलवार, 16 दिसंबर 2008

हमारे समय में ‘नचिकेता का साहस'


साहित्य में साक्षात्कार की परंपरा को अगर हम तलाशना शुरू करें तो इसका आरंभ प्राचीनकाल से ही दिखाई देने लगता है। साक्षात्कार अपने प्राचीनतम रूप में दो लोगों के बीच संवाद के रूप में देखा जा सकता है। आमतौर पर इस संवाद का इस्तेमाल ज्ञान मीमांसा के लिए होता था। प्राचीन ग्रीक दर्शन से लेकर भारतीय पौराणिक साहित्य तक में इसे देखा जा सकता है।

प्राचीनकाल में इस तरह के संवाद के कई रूप आज भी मौजूद हैं। प्लेटो की एक पूरी किताब ही सुकरात से किए गए सवालों पर आधारित है। इसी तरह से ‘कठोपनिषद्' में यम-नचिकेता के संवाद में जीवन-मृत्यु से संबंधित कई प्रश्नों को टटोला गया है, जहां नचिकेता पूछता है, ‘हे यमराज! एक सीमा दो, एक नियम दो - इस अराजक अंधकार को। अवसर दो कि पूछ सकूं साक्षातकाल से, क्या है जीवन? क्या है मृत्यु? क्या है अमरत्व?'

भारत में पंचतंत्र भी प्रश्नोत्तर शैली का इस्तेमाल करते हुए कथा को आगे बढ़ाता है। यहां हर कहानी एक प्रश्न को जन्म देती है और हर प्रश्न के जवाब में ही एक दूसरी कहानी की शुरुआत होती है। यहां तक कि बाद की ‘बेताल पच्चीसी', ‘सिंहासन बत्तीसी' और ‘कथा सरित्सागर' में भी संवाद अहम्‌ है और कथा उसके माध्यम से आगे बढ़ती है।

आधुनिक दार्शनिकों ने भी साक्षात्कार की विधा को एक ठोस आयाम दिया है। बर्कले जैसे दार्शनिकों की भी पूरी एक किताब साक्षात्कार शैली में है। इतिहासकार अर्नाल्ड टायनबी तथा दार्शनिक ज्यां पॉल सात्रके साक्षात्कार भी काफी लोकप्रिय रहे हैं। इन सबके अलावा भारतीय दर्शन की सबसे लोकप्रिय किताब ‘गीता' से बेहतर उदाहरण क्या हो सकता है, जहां पूरी ‘गीता' कुछ और नहीं सिर्फ कृष्ण और अर्जुन के बीच संवाद है।

प्रिंट मीडिया के विकास ने इसे एक दूसरा आयाम दिया। इसने साक्षात्कार को दुनिया की चर्चित हस्तियों को जानने-समझने, उनकी जवाबदेही तय करने और कई बार उन्हें कटघरे में खड़ा करने वाली विधा में बदल दिया। पश्चिमी देशों की कुछ पत्रिकाएं सिर्फ अपने साक्षात्कारों की बदौलत ही लोकप्रिय हैं। इसके विपरीत पश्चिम के मुकाबले भारत में अभी भी इंटरव्यू के मामले में प्रिंट मीडिया काफी पीछे दिखाई देता है।

यहां प्रिंट मीडिया का शुरुआती विकास वैचारिक तथा अवधारणात्मक किस्म के आलेखों से हुआ। इसमें इंटरव्यू जैसे ‘लाइव' माध्यम की ज्यादा गुंजाइश नहीं थी। ‘दिनमान' और ‘धर्मयुग' तक में अधिक जोर वैचारिक तथा विश्लेषणात्मक लेखों का था। शायद यही वजह रही है कि साहित्यिक विधा के रूप में भी इसे अधिक गंभीरता से नहीं लिया गया और आज भी हमें जयशंकर प्रसाद, प्रेमचंद, निराला या महादेवी के बहुत अच्छे इंटरव्यू नहीं मिलते। यदि कभी ऐसे साक्षात्कार लिए भी गए हों तो कम से कम वे आज शोधार्थियों के लिए सुलभ नहीं हैं।

संभवतः ‘रविवार' ने जब घटनाओं की सीधे रिपोर्टिंग करके पत्रकारिता के एक नए तेवर से हिन्दी के पाठकों को अवगत कराया तो साक्षात्कार की अहमियत खुद-ब-खुद सामने आ गई। इंटरव्यू ने पत्रकारिता को तेवर देने के साथ-साथ यथातथ्यता और प्रामाणिकता को बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।

हिंदी में साक्षात्कार की विधा का सही विकास इसके बाद से ही देखने को मिलता है। साक्षात्कार को एक सुंदर और साहित्यिक रूप पद्मा सचदेव ने दिया और व्यवस्थित तरीके से प्रस्तुत किया अशोक वाजपेई ने। पद्मा सचदेव ने अपने नितांत आत्मीय स्वर में की गई बातचीत से लोगों की चिरपरिचित शख्सियत को ही एक नए रूप में सामने रखा। डोगरी में कविताएं लिखने वाली पद्मा को हिंदी में बड़ी पहचान उनके इन साक्षात्कारों की वजह से ही मिली।

कृष्णा सोबती ने भी ‘हम हशमत' में कई दिलचस्प साक्षात्कार लिए - इस पुस्तक में उनके साक्षात्कार आमतौर से सिर्फ बातचीत न बनकर लेखिका की सामने वाले से उसके पूरे वातावरण के बीच एक ‘मुठभेड़' बनता था। अपने शुरुआती दौर में ‘पूर्वग्रह' ने भी साक्षात्कार विधा को काफी संजीदगी से लिया।

अशोक वाजपेई ने उसमें कई महत्त्वपूर्ण साक्षात्कार प्रकाशित किए। इस साक्षात्कारों का आयोजन भी आमतौर पर ‘पूर्वग्रह' ही करता था। उन्होंने हिंदी में साक्षात्कार विधा को जकड़बंदी से निकालकर उसे साहित्यकारों के अलावा चित्रकारों, संगीतकारों तथा फिल्मकारों पर भी एकाग्र किया। उन्होंने अपने संपादन में ‘पूर्वग्रह' के साक्षात्कार की दो किताबें भी निकालीं - ‘साहित्य विनोद' और ‘कला विनोद'। यह पूर्वग्रह की शैली थी कि किसी एक रचनाकार या कलाकार का दो या तीन लोग मिलकर इंटरव्यू करते थे।

बाद के दौर में ‘बहुवचन' और ‘समास' जैसी पत्रिकाओं ने भी कई महत्त्वपूर्ण इंटरव्यू प्रकाशित किए, जिनमें आशीष नंदी जैसे समाजशास्त्री, कृष्ण कुमार जैसे शिक्षाशास्त्री, ज्ञानेंद्र पांडेय जैसे इतिहासकार और मणि कौल जैसे फिल्म निर्देशक भी शामिल थे। इन दिनों साक्षात्कार को एक गंभीर रचनात्मक आयोजन में बदलने वाली एक और अहम्‌ पत्रिका ‘पहल' है। ‘उद्भावना' पत्रिका ने तो सिनेमा पर गंभीर विमर्श को भी साक्षात्कार शैली में प्रस्तुत कर दिया।

हिंदी पत्रकारिता ने साक्षात्कार की विधा को देर से पहचाना और बाद में उसमें तेजी से परिवर्तन भी कर डाले। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के असर से प्रिंट मीडिया में भी इंटरव्यू का ताप और तेवर तय हुआ। लंबे साक्षात्कारों और सोच-विचारकर किए गए सवालों की जगह छोटे इंटरव्यू और पहले से तय प्रश्न दिखने लगे। फिल्मी हस्तियों, मॉडल, खिलाड़ी तथा अन्य ग्लैमर वर्ल्ड की हस्तियों के छोटे साक्षात्कार प्रकाशित होने लगे। इनके सवाल बहुत छोटे और तात्कालिक होते हैं। यह भी दरअसल इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की चलते-फिरते इंटरव्यू करने की शैली का ही एक रूप है। जहां बहुत गंभीर या ठहर कर सोचने-विचारने वाले सवालों की गुंजाइश नहीं रहती।

ऐसी स्थिति में ‘आपकी फेवरेट डिश' या फिर ‘लाइफ में सबसे इंपार्टेंट' जैसे सवाल ही रह जाते हैं। यानी सवाल ऐसे हों कि सिर्फ एक लाइन में जवाब दिया जा सके। यह शैली बाद के दौर में हिंदी वालों ने खूब और बिना सोचे-समझे इस्तेमाल की और अचरज की बात नहीं कि जावेद अख्तर, गुलजार और एम.एफ. हुसैन से भी इस तरह के इंटरव्यू मिल जाएं। अधकचरे किस्म के क्षेत्रीय पत्रकारों ने कामकाज संभालने वाले डी.एम. और ‘मिस शाहजहांपुर' से भी ऐसे सवाल पूछने शुरू कर दिए। कुल मिलाकर संवाद से विमर्श को खत्म कर दिया गया।

इससे उलट इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने ‘संवाद' के साथ दिलचस्प प्रयोग किए। प्रीतीश नंदी, सिमी ग्रेवाल, प्रभु चावला, विनोद दुआ और पूजा बेदी ने इंटरव्यू की शैली को ज्यादा आक्रामक बनाया। सामने वाले को निरुत्तर कर देने की हद तक चुभते सवाल पूछे और टेलीविजन पर लाखों दर्शकों ने जानी-मानी हस्तियों को इन्हीं सवालों के सामने भावुक होते और आंसू पोंछते भी देखा। इसी दौर के कुछ बेहतरीन कार्यक्रमों में साक्षात्कार को ज्यादा से ज्यादा अनौपचारिक बनाया गया और राजनीतिक या ग्लैमर वर्ल्ड की हस्तियों को उनके अपने माहौल के बीच रिकॉर्ड किया गया। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने इस विधा के साथ ज्यादा ‘तोड़फोड़' की। विधा में की गई इस तोड़फोड़ के नतीजे कभी बहुत अच्छे होकर सामने आए तो कभी उबाऊ और कभी एकदम अर्थहीन, लेकिन कुल मिलाकर प्रिंट मीडिया के मुकाबले इसने सृजनात्मकता और उसके तेवर को कायम रखा।

दिलचस्प बात यह है कि दुनिया के स्तर पर प्रिंट मीडिया ने अपनी गंभीरता बरकरार रखी। ‘टाइम' और ‘द इकोनामिस्ट' जैसी पत्रिकाओं ने अपना कलेवर या शैली इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से आक्रांत होकर नहीं बदली। नोम चोमस्की, हैरॉल्ड पिंटर, उम्बर्तो इको और गैब्रिएल गार्सिया मारक्वेज जैसे विद्वानों तथा रचनाकारों के पास अभी भी अपनी बात रखने के लिए साक्षात्कार एक बेहतर विकल्प था। यही वजह है कि इनके बहुत अच्छे साक्षात्कार उपलब्ध हैं, जिनमें अपने वक्त की घटनाओं पर उनकी सटीक टिप्पणी तथा विश्लेषणात्मक रुख देखने को मिलता है। इसके विपरीत हम हिंदी तो दूर अपनी भारतीय भाषाओं तक में महाश्वेता देवी, अरुंधति राय, अमिताव घोष या नामवर सिंह के लंबे और गंभीर इंटरव्यू नहीं पाते। लिखे हुए शब्दों का विचार से यह ‘पलायन' अपने-आप में किसी समाजशास्त्रीय विमर्श का दिलचस्प विषय है।

हमेशा से माध्यमों में आए बदलावों से विधागत परिवर्तन हुए हैं और कई बार ‘विधाओं' ने अपनी मौलिकता को बरकरार रखते हुए माध्यमों का आंतरिक ताना-बाना बदला है। इस लिहाज से इंटरनेट की साक्षात्कार विधा में एक अलग भूमिका उभरकर सामने आ रही है। इंटरनेट इस दौर में तेजी से विचारों के ‘दस्तावेजीकरण' तथा उनकी ‘उपलब्धता' सुनिश्चित करने का माध्यम बना है, बेवसाइटों को खंगालें तो लगभग सभी अहम्‌ विचारकों के साक्षात्कार मिल जायेंगे। यहां आमतौर पर बड़े और लंबे इंटरव्यू ही उपलब्ध हैं। इतना ही नहीं इनमें से बहुत से साक्षात्कारों के वीडियो तथा ऑडियो फारमेट भी उपलब्ध हैं, जिन्हें उसी रूप में देखा या सुना जा सकता है।

एडवर्ड सईद, नोम चोमस्की तथा ऐजाज अहमद जैसे विद्वानों के कई महत्त्वपूर्ण इंटरव्यू तथा पूरी-पूरी किताबें इंटरनेट की साइटों पर मौजूद हैं। यह उदाहरण हमें यह भी बताता है कि ‘विचार' किस तरह से माध्यमों में अपना दखल बनाते हैं। समय बदला है मगर अपने ‘समय से संवाद' लगातार जारी है। ‘कठोपनिषद्' में नचिकेता के सवालों के जवाब में यमराज कहते हैं, ‘हे नचिकेता, तूने साहस किया है! बहुत बड़ा साहस! तूने साक्षात्‌ मृत्यु से प्रश्न किया है और वह भी उसी के साम्राज्य में प्रवेश करके। स्वागत है तुम्हारे इस साहस का!' साक्षात्कार अपने सर्वाधिक सार्थक रूप में इसी ‘साहस' से जन्म लेता है। नचिकेता की प्रश्नाकुलता अब ‘साइबर स्पेस' में तैर रही है।

(नचिकेता और यम के संवाद के.विक्रम सिंह की डाक्यूमेंट्री 'ऑफ लाइफ एंड डेथ' से लिए गए हैं)
_______________________________________________________
यह लेख मूल रूप से वांग्मय पत्रिका प्रकाशित

बुधवार, 1 अक्तूबर 2008

हर शहर का अपना एक आसमान होता है


मैं शहरों को उनके आसमान से पहचानता हूं। आप किसी भी शहर की जमीन को जब अपने पैरों से टटोलते हैं... तो थोड़ा ठिठककर चंद कदम पीछे हटकर ऊपर की तरफ देखें। उस आसमान को पहचानें। यकीनन वह वहां से अलग होगा... जहां से आप आए हैं। बस यहीं से शुरुआत होती है उस शहर के आसमान से दोस्ती करने की।

शायद आसमान से मेरे दोस्ताने का एक बहुत-बहुत निजी कारण भी है। बचपन में पिता के गुजरने पर- मैं अक्सर जब कभी उन्हें याद करके छिपकर रोता था तो उस नादानी में मैंने उनकी जगह आसमान तय कर दी थी। मुझे लगता था कि वे वहां से मुझे देख सकेंगे। धीरे-धीरे उम्र बढ़ी पिता धुंधलाती स्मृतियों का हिस्सा बन गए मगर आसमान में पिता साहचर्य और सुरक्षा ने घर कर लिया। मेरे लिये आसमान से दोस्ती की शायद यही शुरुआत हुई।

आकाश से दोस्ती बहुत जल्दी या थोड़े समय में नहीं होती... मगर कई बार वह आपकी स्मृतियों का हिस्सा बन सकता है। मुझे अफसोस है कि मेरे हिस्से में बहुत कम आसमानों से दोस्ती आई। पहला आसमान इलाहाबाद है जो कभी मुझे भूलता नहीं... उस आसमान का नदी और उसके बलुई तट से बहुत गहरा रिश्ता है। वहां के आसमान को महसूस करने के लिए यह जरूरी है कि आपके पांव संगम के तट पर हों। इलाहाबाद एक सुंदर शहर है। जो सहसा उग आए किसी जंगली फूल सा मित्रवत है। मुझे सर्दियों में इलाहाबाद की ओस से भीगी सुबह याद आती है जब स्कूटर के आगे पतंगी कागज जैसे पंख फड़फड़ाती तितलियां उड़ती भागती थीं।

आसमान दरअसल एक पारदर्शी शीशा है... जो आपके उस मन का आईना बन जाता है जो शहर में भटक रहा है।

लखनऊ के आसमान से कभी मेरी दोस्ती नहीं हो पाई। गोमती के पुल से गुजरते वक्त हमेशा शहर का आकाश उस दोस्त की निगाह से आपको देखता है... जिसने इन दिनों आपसे दूरी बना रखी है। वह हमेशा शाम के कारण याद आता है। क्योंकि हर शाम वह डूबते सूरज के संग कत्थई-सुरमई-सा हो जाता है। लखनऊ का आसमान रात को अक्सर दोस्ताना हो जाता है। खास तौर पर सर्दियों की रात को। वह किसी स्त्री की तरह जादुई आकर्षण से भरा होता है। मगर लखनऊ की सुबह का आसमान भी कभी देखें। उन दिनों में जब गर्मियां शुरु होने वाली होती हैं। जैसे कि मार्च-अप्रैल के दिनों में। इस आसमान का हवाओं से गहरा रिश्ता होता। गोमती नदी से भी। चमकती धूप से भी।

बरेली में गुजरे लंबे वक्त में आसमान की स्मृतियां बहुत कम हैं। शाम को जब बस्तियों से सुरमई धुआं उठता है और क्षितिज में पतंगें हल्के-हल्के कांपती नजर आती हैं। बस इतनी ही याद है।

मगर बैंगलोर का आसमान चकित करता है। प्रायद्वीप के उत्तरी हिस्से में रहने वाले जिन लोगों को हवाओं में बसी धुंध के चश्मे से क्षितिज को देखने की आदत हो, उनके लिए नीला आसमान, पारदर्शी हवा और हवाओं के कंधे पर सवार चमकीली धूप एक इतना नया अनुभव है, जैसे विस्मृति के अंधेरे से आकर आपने दोबारा जन्म लिया हो और दुनिया देख रहे हों। साल के कई महीने यह आसमान बादलों से डबडबाता रहता है। और बंगलौर में कभी भी बारिश शुरु हो जाती है। अक्सर शाम को... एक रिमझिम जो घंटों चलती है।

बंगलौर में मौसम एक समान रहता है। दिल्ली के एक मेरे मित्र का कहना था कि यह कुछ समय बाद उबाऊ हो जाता होगा। मगर होता कुछ और है। आप मौसम के बारीक से बारीक नोट्स को पकड़ने लगते हैं। हवा के मिजाज मे आया हल्का सा फर्क भी आपको पता चल जाता है। यहां की सर्दियां सुखद होती है। बाकी साल आप उनके इंतजार में बिता सकते हैं। सर्दियों में मुलायम ऊन सी गरमाहट लिए धूप थोड़ी और चमकीली, आसमान थोड़ा और साफ और हवाएं कुछ और पारदर्शी हो जाती हैं।
Creative Commons License
Khidkiyan by Dinesh Shrinet is licensed under a Creative Commons Attribution-Noncommercial-No Derivative Works 2.5 India License.
Based on a work at khidkiyan.blogspot.com.
Permissions beyond the scope of this license may be available at shrinet@oneindia.in.