मंगलवार, 16 जून 2009

हंसी के विरुद्ध


जिन लोगों ने हाल में प्रदर्शित अनुराग कश्यप की फिल्म 'गुलाल' देखी होगी वे फिल्म के उस दृश्य को कभी नहीं भूल पाएंगे, जब सनकी से किरदार में पियूष मिश्र अपने हिजड़े साथी के संग गीत गाते घूमते हैं और अपनी हार से तिलमिलाए केके खुद पर यह व्यंग बर्दाश्त नहीं कर पाता और हिजड़े को गोली मार देता है। तंज़ को बर्दाश्त न कर पाना और एक हिजड़े को मारना दरअसल सत्ता के दंभ से भरे उस पात्र के खोखलेपन को दर्शाता है। सत्ता का अहंकार कभी हँसी बर्दाश्त नहीं कर सकता। गुलाल के इस दृश्य को भारतीय सिनेमा के महानतम दृश्यों में रखा जाना चाहिए जो एक साथ न जाने कितने अर्थ खोलता है। पियूष का गान और हिजड़े की वेशभूषा दरअसल उस खत्म होती लोक-कला की याद दिलाते हैं जो समाज पर कटाक्ष करने का दम रखती थी।

मुझे याद है कुछ समय पहले पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने भारतीय मीडिया को सलाह दी थी कि कार्टून को पहले पेज पर वापस लाया जाए। उनके इस प्रस्ताव ने मीडिया में थोड़े समय के लिए ही सही एक बहस शुरु कर दी थी। माना जा रहा है कि दुनिया भर के मीडिया में कार्टून अब हाशिए पर खिसकते जा रहे हैं। देश के कुछ जाने-माने कार्टूनिस्टों की टिप्पणी थी कि यह दरअसल एक ऐसे समाज का संकेत है जहां असहमति के लिए गुंजाइश खत्म होती जा रही है, जबकि कार्टून विधा के मूल में ही आलोचना और असहमति मौजूद है।

इसका ताजा उदाहरण कुछ समय पहले 'न्यूयार्क पोस्ट' में प्रकाशित एक कार्टून को लेकर उठे विवाद में देखा जा सकता है। 'द न्यूयार्क पोस्ट' में प्रकाशित इस कार्टून में एक चिम्पांजी को दिखाया गया था। डेमोक्रेटिक नेताओं का कहना था कि इस कार्टून में चिम्पांजी की तुलना ओबामा से कर एक बार फिर अमेरिका में राख में दबी नस्लीय आग को हवा दी जा रही है। अश्वेत नेता अल शार्पटन का कहना था कि यह कार्टून एक तरह का हमला है, अफ्रीकी मूल के अमेरिकी को ही दरअसल बंदर के रूप में दर्शाया गया था। सीन डेलोनास के बनाए इस कार्टून के छपते ही अखबार के दफ्तर में इतने फोन आए थे कि वहां की टेलीफोन लाइन ही ठप हो गई। उल्लेखनीय है कि पिछले दिनों ओबामा को लक्ष्य करके बनाए गए कई अन्य कार्टूनों पर भी तीखी प्रतिक्रिया देखने को मिली है। ओबामा की उम्मीदवारी के दौरान न्यूयार्कर में छपे कार्टून पर भी ऐतराज हुआ।

हालांकि अमेरिका के इतिहास पर गौर करें तो वहां राजनीतिक पार्टियों के तौर-तरीकों पर व्यंगात्मक टिप्पणी का चलन बहुत पुराना है। राजनीतिक कार्टून के चितेरे थॉमस नेस्ट ने सन 1860 बाद होने वाले अमेरिका के राष्ट्रपति चुनावों पर जिस तरह अपनी पैनी नजर से डाली उससे तत्कालीन राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने उन्हें सदी के सर्वश्रेष्ठ कार्टूनिस्ट का खिताब दे डाला। कहा जाता है कि उनकी व्यंगात्मक शैली और विद्वतापूर्ण परिहास ने अमरीकियों की चुनावी प्रक्रिया में दिलचस्पी बढ़ाने का काम किया। उनके कार्टूनों की कितनी अहमियत थी, इसका अंदाजा सिर्फ इस बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने चुनाव से पहले अपने कार्टूनों में रिपब्लिकन पार्टी को प्रतीक के तौर पर हाथी दिखलाया था, और चुनाव के ठीक पहले पार्टी ने इसी हाथी को औपचारिक रूप से अपना चुनाव चिह्न बना लिया।

दरअसल परिहास आम जनता के लिए प्रतिरोध का सबसे सशक्त माध्यम रहा है। इसका सबसे दिलचस्प उदाहरण बुश को और फिर भारत में कई राजनेताओं पर जूते फेंके जाने की घटना मे देखा जा सकता है। जूता जाहिर तौर पर शारिरिक क्षति नहीं पहुंचाता मगर यह ठीक-ठीक गुलाल के पीयूष की तरह सत्ता के अहम् को चोट पहुंचाने की हैसियत रखता है। शायद यही वजह है कि ईराकी पत्रकार के जूता फेंकने की घटना के बाद देखते-देखते इंटनरेट पर इससे जुड़े तमाम चुटकुले लोकप्रिय हो गए। किसी चुटकुले में कहा गया कि ईराकी पत्रकार को जूते फेंकने की ट्रेनिंग आंतकवादी संगठन लश्कर-ए-तैयबा और जमात-उद-दावा से मिली, तो कहीं जूते का डीएनए टेस्ट किए जाने का जिक्र है।

तेजी से बढ़ती संचार क्रांति ने परिहास को छोटे समूहों के दायरे से बाहर निकाला है और यह कहीं ज्यादा तेजी से पॉपुलर होने लगा है, शायद इसीलिए यह सत्ताधारी लोगों को और ज्यादा खतरनाक लग रहा है। हंसी पर अंकुश लगाने का एक नया मामला पिछले दिनों तब सामने आया जब चीन की सरकार मोबाइल पर अपने नेताओं के बारे में भद्दे और मजाकिया संदेश के आदान-प्रदान से कसमसाने लगी। 'रेड टेक्स्ट मैसेज' के नाम से एक अभियान चलाया गया कि करीब 50 करोड़ मोबाइल धारकों को 'अभद्र संदेशों' की जगह स्वस्थ संदेश भेजने के लिए प्रेरित किया जाए, मगर सरकार की यह नैतिकतावादी कोशिश अपने-आप में ही एक मजाक में बदल गई।

भारत में तो सत्ता पर कटाक्ष की बहुत पुरानी परंपरा रही है। सबसे ज्यादा तो संस्कृत साहित्य में यह परिहास देखने को मिलता है। यहां तक कि पौराणिक साहित्य में देवी-देवताओं को भी मजाक का निशाना बनाया गया है। मुगलकाल के सामंती दबदबे में भी परिहास दब नहीं सकी और कहीं न कहीं उसने सत्ता को अपना निशाना बना ही डाला। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान जवाहरलाल नेहरू और गांधी जैसे नेताओं को भी व्यंग की पैनी धार का सामना करना पड़ा था। यदि सिर्फ उस दौर में छपे कार्टूनों को सिर्फ संग्रहित करके उनका विश्लेषण किया जाए तो स्वतंत्रात्योत्तर भारत को समझने की एक नई दृष्टि मिल सकती है। परिहास की सबसे बड़ी खूबी शायद यही होती है कि वह एक समाज के सामूहिक अवचेतन से जन्म लेता है। शायद इसी अवचेतन में मौजूद विद्रोह की जड़ों से सत्ता को हमेशा भय सताता रहता है।
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जनसत्ता के 27 मई 2009 के अंक में 'दुनिया मेरे आगे' में प्रकाशित लेख मूल रूप में

4 टिप्‍पणियां:

Unknown ने कहा…

aapka shabd shabd ytharth ka chitran hai aur meri sampoorna sahamati hai

kataksh sada hi parinaamkari ho, ye zaroori nahin leken aamtaur par janmaanas par prabhaav avashya daalte hain
badhaai !

श्यामल सुमन ने कहा…

अच्छे विचार, अच्छा विश्लेषण पढ़कर अच्छा लगा।

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com

Udan Tashtari ने कहा…

आभार इस विचारोत्तेजक आलेख को यहाँ प्रस्तुत करने का.

Divya Narmada ने कहा…

रोचक और सारगर्भित

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