“What no wife of a writer can ever understand is that a writer is working when he's staring out the window” -Burton Rascoe
शनिवार, 20 सितंबर 2008
ऋचा गोडबोले अब कहां हैं?
मुझे नहीं मालूम ऋचा गोडबोले अब कहां हैं। सूचनाओं के इस दौर में भी उनके और मेरे बीच एक अद्श्य-सा पर्दा है। उनके बारे में कोई मराठी साहित्य का जानकार ही बता सकता है। शायद वह आज की लोकप्रिय युवा कवियित्रियों में शामिल हो गई हों या लाखों-करोड़ों इंसानों की भीड़ में कहीं गुमनाम-सी जिंदगी गुजार रही हों।
अगर बीते समय का लेखा-जोखा लेकर बैठूं तो स्मृतियों की धुंध में कुछ नाम, किताबें और चेहरे कौंध जाते हैं, जो अनजाने ही लिखने और साहित्य के प्रति मेरा रुझान तय करते गए। शायद बहुत महान रचनाकारों के मुकाबले कई अलोकप्रिय किताबें और लेखक आपको जिंदगी और रचनात्मकता के बारे में बहुत कुछ बता जाते हैं।
मेरी यादों में ऋचा उन्हीं में से एक हैं। उन्होंने शायद दस बरस की उम्र से मराठी में बाल कविताएं लिखनी शुरु कर दी थीं। जब वे थोड़ी बड़ी हुईं यानी चौदह बरस की तो उनकी कविताओं का रुझान परिपक्व होने लगा। धर्मयुग ने उसी समय एक अनूठा प्रयोग किया था। पत्रिका ने ऋचा पर एक बड़ी स्टोरी प्रकाशित की थी। प्रभु जोशी के बनाए हुए चित्रों के साथ ऋचा की कविताएं थीं। इनकी शैली दरअसल जापानी हायकू के बहुत करीब थी।
धर्मयुग का वह अंक न जाने कब खो गया मगर करीब 25-26 साल पहले पढ़ी गई इन कविताओं के हिन्दी अनुवाद मुझे आज भी शब्दशः याद हैं। मसलन-
हर रोज संध्या की बेला में हार जाता है बेचारा सूरज
क्योंकि दलबदल कर जाती है अंधेरे के खेमों में
विश्वासपात्र किरणों की टुकड़ी
बचपन से बड़े होने के बीच के बरसों में उम्र का वह हिस्सा जंगली फूलों जैसा अछूता-सा होता है। ऋचा अपने हायकू में उस अहसास को समेटकर ले आई थीं। बाल कविताओं के बाद उनकी यह परिपक्वता इतनी सहज थी, जितनी मैंने अपनी पढ़ी गई रचनाओं में बहुत कम देखी है। देखें-
पालने में लेटा एक शिशु
उमग कर हंसा
बोगेनबेलिया का एक फूल ऐसा चौंका
कि गिर पड़ा
एक अन्य कविता, जो मुझे शब्दशः याद नहीं है मगर उसका भावार्थ मैं यहां दे सकता हूं, जो कुछ इस तरह है कि- एक शांत रात में सहसा चली हवा के झोंके से पर्दा हिला और खिड़की से झरती चांदनी खरोंच खा गई।
उपरी तौर पर ये कविताएं बहुत साधारण भी लग सकती हैं। मगर इनके भीतर निहित बहुत-बहुत सहज काव्यात्मकता- या कहें कि वह भाव जब हमारे में भीतर कविता का जन्म होता है- उसने उस वक्त मुझे हतप्रभ कर दिया था। मामूली से शब्दों में कितना जादू हो सकता है- यह पहली बार मैंने जाना-सीखा था।
मुझे लंबे समय तक (और आज भी) यह यकीन था कि ऋचा बड़ी होकर एक बेहद संवेदनशील और प्रतिभावान कवियित्री के रूप में सामने आएंगी। वह लोकप्रिय न भी हों, वह मराठी साहित्य में कोई बहुत बड़ा योगदान भले न कर सकें मगर वे अपनी अलग पहचान अवश्य बनाएंगी।
धर्मयुग में ऋचा की तस्वीर छपी थी। वे एक सुंदर और थोड़ी किशोरवय के रूखेपन और रहस्य से भरी दिखती थीं। उम्र के हिसाब से वे उस वक्त मुझसे चार साल बड़ी थीं मगर मैं बचपन में सोचा करता था कि बडे़ होकर मैं उनसे शादी कर लूंगा। मुझे नहीं मालूम ऋचा गोडबोले अब कहां हैं... मगर उनके असर में मैंने कविताएं लिखनी शुरु कर दीं। भले मैं उनके रचनात्मक मूल्य को लेकर आश्वस्त नहीं था।
आज मैं पलटकर पीछे देखता हूं तो रचना की इस ताकत पर चकित रह जाता हूं। इसलिए रचनात्मकता पर यकीन करता हूं। अगर रचनाएं मेरे जीवन को बदल सकती हैं तो वह किसी का जीवन बदलने की ताकत भी समेटे होती हैं।
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2 टिप्पणियां:
यह सचमुच एक प्रेरक के प्रति आदराजंलि है। ऋचा की तरह मुझे भी ऐसी ही एक प्रेरक मिली थीं। जिन्हें मैंने कभी नहीं देखा।नाम था प्रज्ञा तिवारी । उनकी कविता 1975 के आसपास कादम्बिनी के एक अंक में उभरते रचनाकारों के कालम में प्रकाशित हुई थी। उनकी चार पंक्तियां मेरी कविता डायरी में अब तक पहले पन्ने पर लिखी हैं। कविता इस तरह है- लक्ष्य तो दृढ़ तो आरंभ से ही,पर हर घ्ाटना अचानक हो गई। कहां तक समेंटे हम पृष्ट इसके, जिंदगी बिखरा कथानक हो गई।
तो आपने सही कहा कि कई बार ख्यातनाम नहीं गुमनाम ही रचनात्मकता के लिए प्रेरणा बन जाते हैं। ऐसे गुमनामों को रचनात्मकता का सलाम।
कृपया पहली पंक्ति में आदरांजलि पढ़ें।
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