शनिवार, 31 मई 2008

अभिव्यक्ति की छटपटाहट और खतरे


"मैं खुद को एक ऐसा निबंधकार मानता हूं जो उपन्यास शैली में निबंध लिखता है और निबंध शैली में उपन्यास, लिखने की बजाय मैं उन्हें फिल्मा देता हूं। यदि कभी सिनेमा न रहा तो मैं इस नियति को सहजता से स्वीकार कर लूंगा और टेलीविजन की ओर मुड़ जाऊंगा, यदि टेलीविजन न रहा तो मैं कागज और कलम थाम लूंगा। अभिव्यक्ति के सभी रूपों में स्पष्ट निरंतरता है, वे एक ही हैं।"

बरसों पहले फ्रेंच फिल्मकार ज्यां लुक गोदार की यह टिप्पणी माध्यम और कथन के बीच संबंध को बहुत साफ तौर पर सामने रखती है। शायद यह हिन्दी का दुर्भाग्य रहा है कि वह माध्यम और कथन अथवा विचार के बीच कभी संतुलन नहीं साध सकी। बीते तीन सालों में इंटरनेट पर हिन्दी की छलांग और हिन्दी के बहुत छोटे से ब्लाग समाज के बीच गाली-गलौज और चरित्र हनन की स्थिति तक पहुंचे विवाद से यह बात और साफ हो जाती है।

हमारी भाषा हमेशा नए माध्यमों और नए विचारों से स्वस्थ संबंध बनाने में असहज महसूस करती है। दरअसल हिन्दी साहित्य का एक खास वर्ग चरित्र है। इस वर्ग चरित्र की पोल न खुल जाए इसके लिए आम तौर पर साहित्यकारों के पास एक ही तरीका होता है कि वह एक छद्म क्रांतिकारिता, दार्शनिकता या प्रगतिशीलता का आवरण ओढ़कर अपनी बात कहें। ज्यादातर हिन्दी के साहित्यकारों या बुद्धिजीवियों की लेखनी और उनके जीवन में बड़ा अंतराल देखने को मिलता है, क्योंकि उनका निजी जीवन बेहद छुद्र किस्म के स्वार्थों से भरा हुआ है। शायद इसी स्थिति ने हिन्दी साहित्य को ऊब की स्थिति तक एकरस बना दिया।

नतीजा यह हुआ कि नेट पर हिन्दी की छलांग भी एक धोखा बनकर सामने आई। जब अचानक यूनीकोड की सुविधा उपलब्ध हुई, हिन्दी में ब्लागिंग संभव हुई और माइक्रोसाफ्ट विंडोज उसे आसानी से सपोर्ट करने लगा तो देखते-देखते सैकड़ों लोगों में खुद को अभिव्यक्त करने की भूख जाग उठी। इसमें न तो हिन्दी के आत्मुग्ध लेखकों का कोई रचनात्मक योगदान था और न ही इसके लिए उन्होंने अपनी रातों की नींद हराम की। यह सब कुछ मल्टीनेशनल कंपनियों के रिसर्च एंड डेवलपमेंट विभाग की तरफ से उन्हें खैरात में मिल गया था। बस फिर क्या था... किसी ने उसे आत्मप्रशंसा का जरिया बन लिया, किसी ने अपनी कहीं न छपने वाली रचनाओं से ब्लाग को पाट दिया।

दिलचस्प बात यह थी कि अभिव्यक्ति के स्तर पर ईमानदार और मौलिक ब्लाग रचने वालों में से अधिकतर का हिन्दी की साहित्य बिरादरी से दूर-दूर तक रिश्ता नहीं था। वे न तो किसी कालेज या विश्वविद्यालय में प्राध्यापक थे, न पत्रकार, न किसी किसी सरकारी फेलोशिप से पेट पालने वाले और न ही एनजीओ के जरिए क्रांति लाने वाले थे।

यह समझना दिलचस्प होगा कि अभिव्यक्ति की इस आजादी और सूचना की इस बौछार ने ही हिन्दी लेखन का वर्ग चरित्र सामने रख दिया। अब तक के इस सबसे स्वतंत्र माध्यम में असहमतियों के लिए कोई जगह नहीं थी। असहमतियां निजी कुठाराघात और 'बिलो द बेल्ट' प्रहार में बदलने लगीं। हिन्दी ब्लाग जगत के ताजा विवादों ने यह साफ कर दिया है कि माध्यम नहीं अभिव्यक्ति अहम है, जैसा कि गोदार कहते हैं। इससे यह भी साफ हो गया कि हिन्दी ब्लाग की दुनिया का शुरुआती भाईचारा भी एक छद्म था। यह माध्यम का भाईचारा था, अभिव्यक्ति का नहीं।

अब शायद यह जानकर ज्यादा हैरानी नहीं होगी कि बड़ी संख्या में ब्लाग का इस्तेमाल अश्लील साहित्य परोसने में किया जा रहा है। यह प्रकाशन के मुकाबले ज्यादा आसान और सुरक्षित तरीका है। तो यह साफ हो जाता है कि माध्यम अपने आप में कोई ताकत नहीं है, ताकत इस बात में है कि उस माध्यम का इस्तेमाल कैसे किया जा रहा है। सन् 1935 में बनी लेनी रेफनस्थाल की फिल्म 'ट्रायम्फ आफ द विल' नाजी पार्टी की एक रैली का फिल्मांकन भर करती है, मगर माध्यम का इस्तेमाल ही था जिसने हिटलर को एक देवदूत की तरह पेश किया और डाक्यूमेंट्री के हर दृश्य को रुडोल्फ हैस के इस धन्वाद प्रस्ताव में बदल देता है, "हिटलर ही पार्टी है लेकिन हिटलर जर्मनी भी है, वैसे ही जैसे जर्मनी हिटलर है।"

हिन्दी ब्लाग जगत में उठे विवाद अब साफ तौर पर इस शक्तिशाली माध्यम के बारे में सोचने को मजबूर कर देते हैं। हमें अच्छे और खराब ब्लाग के बीच भेद को साफ तौर पर पहचान लेना चाहिए। खराब ब्लाग खत्म नहीं होंगे। वे हमेशा रहेंगे। जैसे खराब फिल्में और खराब साहित्य मौजूद है।

किसी भी माध्यम की ताकत अगर साफ्टवेयर की भाषा में कहें तो उसके 'यूजर' होते हैं। इसलिए अभिव्यक्ति सारे दवाबों से मुक्त होकर सामने आनी चाहिए। कर्नाटक के कुछ मंदिरों में यह अनूठी परंपरा देखने को मिलती है जहां हर साल एक खास फेस्टिवल में महिलाएं और पुरुष अंगारों पर नंगे पैर चलकर मंदिर के भीतर दर्शन करने पहुंचते हैं। ऐसा करने वालों में कई बार घरेलू महिलाएं भी शामिल होती हैं। दिलचस्प बात यह है कि एक ईमानदार रचना का सामने आना भी हमेशा अंगारों पर चलकर अपनी मंजिल तक पहुंचने जैसा होता है। इसके लिए उन घरेलू महिलाओं की तरह सिर्फ आस्था और साहस की जरूरत होती है, किसी तिकड़म से भरे कौशल की नहीं...

तस्वीर the fashion rookies jar ब्लाग से साभार

मंगलवार, 6 मई 2008

तुर्गनेवः करुणा और आशा


ईवान सेर्गेयेविच तुर्गनेव को पढ़ना मेरे लिए कुछ ऐसी स्मृतियां लेकर आता है जैसे सर्दियों के मौसम में कभी न खत्म होने वाला बारिश का झुटपुटा। शायद इसलिए कि उसी दौरान हमारे शहर में रूसी किताबों की प्रदर्शनी लगा करती थी। हिन्दी, अंग्रेजी और उर्दू में हजारों किताबें... उन्हें बेचने के लिए आने वाले अक्सर अपनी कुर्सी के पास कोयले वाली अंगीठी सेंकते नजर आते थे।

और बचपन में जिस पहले लेखक की रचना से मेरा गहरा और ऐंद्रिक परिचय हुआ.. वह लेखक थे ईवान सेर्गेयेविच तुर्गेनेव।

मैंने उनकी कुल तीन किताबें पढ़ीं हैं.. मगर उनका मेरे मन पर इतना गहरा असर हुआ कि आज भी मैं उनके चरित्रों को नहीं भूल सकता। मेरी मां की पर्सनल लाइब्रेरी में उनकी छोटी सी किताब थी पहला प्यार। भीतर लिखा था- माइ फर्स्ट लव का हिन्दी अनुवाद। किताब के शीर्षक के चलते बारह-तेरह बरस की उम्र में उसे सबके सामने पढ़ना मुझे शर्मिंदा करता था। लिहाजा मैं एक दिन मैं उस लेकर सीढ़ियों पर चला गया। गर्मियों की पूरी दोपहर सीढ़ियों पर बैठकर मैंने वह किताब खत्म कर डाली। यह एक ऐसे किशोर की कहानी थी जो एक युवती को मन ही मन प्यार करने लगता है मगर बाद में उसे पता चलता है कि वह उसके पिता की प्रेमिका है।

थोड़ा बाद में मैंने उनकी पिता और पुत्र तथा एक शार्ट नावेल मू मू पढ़ा। मू मू एक गूंगे-बहरे किसान और एक आवारा कुतिया से उसके लगाव की मानवीय कथा है। पिता और पुत्र का नायक बजारोव मुझे पसंद नहीं था मगर उसी उपन्यास के दूसरे चरित्र पावेल पेत्रोविच से मुझे खासा लगाव हो गया था।

लंबे समय तक (शायद आज भी) मैं तुर्गनेव के चरित्रों का असर मेरे दिमाग पर छाया रहा। तुर्गनेव मुझे हमेशा से एक बड़े लेखक लगे हैं। जीवन को वे एक गौर-रूमानी और तटस्थ नजरिए से देखते हैं। इसके बावजूद उन्हें पढ़ना आपके भीतर एक स्थायी करुणा और जीवन के प्रति आशावादिता का भाव पैदा करता है। उनकी भावुकता आपको कमजोर नहीं करती बल्कि मजबूत करती है।

मेरी निगाह में यह किसी लेखक से मिलने वाली एक बहुत बड़ी बात है...
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